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________________ १३९ द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय वस्ति के भेद या प्रकार : वस्ति के प्रधानतया दो भेद मार्ग भेद से किये जा सकते है। अधोवस्ति-जिसमे गुदा के मार्ग से औपधि प्रविष्ट की जाय तथा उत्तरवस्ति-जिसमे मूत्र या योनि मार्ग से औपधि द्रव्य प्रविष्ट किया जावे। पुन औषधि की कल्पना तथा उद्देश्य या प्रभाव या गुण भेद से वस्ति के दो प्रकार हो जाते है। नैरूहिक और स्नैहिक । नरूहिक को निरूह और आस्थापन भी कहते है । आस्थापन एव निरूह ये दोनो पर्यावाची शब्द है। दोपो के निकलने से अथवा शरीर का रोहण करने से निह कहलाती है। आयु का स्थापन--स्थिरोकरण इसके द्वारा होता है, इमलिए आस्थापन कहलाती है। आस्थापन का ही एक भेद माधुतैलिक है, माधुतैलिक वस्तियो के पर्याय रूप में यापना, युक्तरथ तथा सिद्ध वस्ति के नाम भाते हैं । इनमे मधु एव तेलका योग रहता है मत माधुतैलिक कही जाती है । इनमे यापन का अर्थ होता है आयु का दीर्घ काल तक रहना, युक्तरथ - जिनमें रथ में घोडे जतने पर जब चाहे उसको दौडा सकते है ठीक इसी प्रकार इस वस्ति का भी उपयोग बिना किसी प्रकार की पूर्व की तैयारी किये विना किसी परहेज के जव चाहे कर सकते है इसलिए यह युक्तरथ कहलाती है। सिद्ध वस्ति: यह एक प्रकार की बहुत मृदु वस्ति है और इसका अधिकतर चिकित्सा कर्म में प्रयोग होता है। इसमे वमन आदि सम्पूर्ण विधियो के उपयोग की आवश्यकता नही रहती, एक ही वस्ति दी जाती है तथा किसी प्रकार के परहेज की आवश्यकता नही रहती और इनमे कोई कप्ट नही होता और चिकित्सा मे विभिन्न रोगो के अनुसार जैसे कृमि रोग मे पलाश के बीजादिक्वाथ से, अतिसार पिच्छा वस्ति के रूप में अवस्थानुसार दी जाती है। निरूह के अनन्तर रोगी के शोधन हो जाने के बाद स्निग्ध या वृहण वस्तियो का प्रयोग किया जाता है। इन्ही स्निग्ध वस्तियो को ही अनुवासन कहते है। स्नेह की मात्रा के भेद से यह तीन प्रकार की होती है, यदि स्नेह की मात्रा पूरी दी जाय तो ६ पल ( पट्पली मात्रा) श्रेष्ठ हैं। उसको स्नेह वस्ति कहते है । यदि उसमे चौथाई स्नेह कम कर दिया जाय तो उसे अनुवासन (पादावकृष्ट) कहते है। इसको अनुवासन इसलिए कहते है कि शरीर के भीतर रहने पर भी • दुपित नही होती तथा दूसरे दिन भी दी जाती है इसलिए अनुवासन कहते हैं । इसी का एक भेद मात्रा वस्ति नाम से होता है, जिसमे स्नेह की मात्रा चतुर्याश रह जाती है। दूसरे शब्दो मे इसको इस प्रकार कह सकते है कि यदि स्नेह की मात्रा ३ पल हुई तो वह मध्य या अनुवासन वस्ति होगी। यदि स्नेह की मात्रा १॥ पल हुई तो निकृष्ट या हीन होगी।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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