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________________ भिपकर्म-सिद्धि ७८ २ नास्ति रोगो विना दोपर्यम्मात्तस्माद् विचक्षणः । अनुक्तमपि दोपाणां लिङ्गव्याधिमुपाचरेत् ।। ३. विकारनामाङ्कुशलोन जिहीयात् कदाचन । नहि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवास्थितिः ।। ४. आगन्तुर्हि व्यथापूर्वसमुत्पन्नो जघन्यं वातपित्तश्रेष्मणां वयम्य ___ मापादयति । मभी रोगो का मूल कारण प्रकुपित दोष है। उम दोपप्रकोपक का भी कारण अनेक प्रकार के अहित पदार्थों का सेवन (असाम्येन्द्रियार्थमयोग, प्रजापराध और परिणाम । ही है। अभिवातज भणुजीवो के उपमर्ग ने होने वाले रोग आगन्तुक है-उनमें उत्पत्ति काल में दोपप्रकार यद्यपि कारण नही होता तथापि आगन्तुक कारणो का उपस्थिति के पश्चात् दोपप्रकोप होकर व्याधि की उत्पत्ति होती है लिखा है 'उत्पन्नद्रव्य गुणयोगवन्' अर्थात् मन्त्र उत्पन्न द्रव्य एक क्षण के लिये निगुण एवं क्रिवारहित रहता है तथापि भावी गुण एवं क्रिया की कल्पना से उत्पन्न द्रव्य को भी क्रिया मोर गण मे युक्त मान लिया जाता है। फलत भागन्तुक रोगो में उत्पत्ति के पश्चात दोपसम्बन्ध होता है और वे भी दोपजात हो रोग हो जाते है । इस मसार के यावत् गारीरिक रोगो के मूल टोप ही है। अत मर्वप्रथम उनकी परिभाषा एवं संख्या का ज्ञान कर लेना परमावश्यक है। वातः पित्तं कफयेति त्रयो दोपाः समासनः। विकृताऽविकृता देहं नन्ति ते तपर्यन्ति च ।। (वा० )। दोप-~१ मलिनीकरणान्सलाः । शरीर को मलिन करने के कारण दोपो को मल कहते है।। २ दूपणादोपाः। क्रिया की दृष्टि से शरीर का दूपण ३ देहधारणात् धातवः। करने से दोष और देह का घारण ) करने से ये धातु कहलाते है। लक्षण-'दूपकत्व दोपत्वम्'-गरीर के वातुबो को दूपित करने वाले तत्त्वो को दाप कहा जाता है । यदि ऐसी परिभाषा की जावे तो फिर रस-रक्तादि धातु भी स्वयं दूपित होकर एक दूसरे को दूपित करते हैं, वे भी दोपो की श्रेणी में ही आ जायेंगे-अतः इनकी निवृत्ति के लिये पूर्व परिभापा में कुछ विगेपण जोड़ना आवश्यक है-एतदर्थ 'स्वातन्त्र्येण दूपकत्व दोपत्वम्' इस प्रकार का कथन अधिक समोचीन है अर्थात् जो तत्त्र स्वतंत्रतया शरीरधातुओ के दूपक होवे वे दोप है ।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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