SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिपकर्म-सिद्धि विधिभेद प्रकारभेद है और भेदविवक्षा के ऊपर आवृत है। रोग में चिकित्मा की दृष्टि से दोनो का कथन अपेक्षित रहता है । ___चक्रपाणि का भी वचन है 'संत्याद्यगृहीते व्याधिप्रकारोऽय विधिगदो वर्तनीयः ।' अर्थात् सख्या आदि मे अन्तर्भाव न होने योग्य व्याधि के विगिष्ट भेदो का नित्पण करने के लिये विधि शब्द का प्रयोग अवश्य करना चाहिये । इस प्रकार वारमट तथा उनके अनुयायी माधवकरने जो संख्या में ही विधि का अन्तर्भाव कर लिया है वह भ्रमपूर्ण है। ऐमा विजयरक्षित को भी अभिमत है क्योकि नैयायिको का भी सिद्धान्त है कि 'मामान्यन धर्मेण परिग्रहो भेनाना यत्र क्रियते स विधि सत्या तु भेदमात्रम् 'अर्थात् जहाँ विभिन्न भेदो का निर्णय समान धर्म से किया जाता है वहाँ विधि गन्द का प्रयोग करना चाहिये । केवल भेद प्रदर्शित करने के लिये मत्या गन्द का प्रयोग करना चाहिये । वैयाकरण लोग भी नत्या और विधि में भेद मानते है । ___'अन्वयवान् प्रकारो निरन्वनो भेद ।' अर्थात् ममान जाति में ही अवान्तर धर्म के सम्बन्ध से भेद का विधि (प्रकार ) एव ममान और मसनान जाति में भेदमात्रमूचक मस्या का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ चार पगु कहने से गाय भैस, वकरी, आदि सब का बोध हो सकता है। अत यहाँ विजातीय होने के कारण, भेदमात्र का ही वोध होता है जिससे केवल सख्या का प्रयोग होता है। परन्तु जहाँ काली एवं श्वेत दो प्रकार की गायें है वहां पर श्वेतत्व और कृष्णत्व भेद ममान जाति में ही किया गया है अत प्रकार या विधि शब्द का प्रयोग होगा। विधि एवं सख्या का भेद नित्पण करते हुए आचार्य श्री गगाधर जी कविराज ने भी लिखा है 'अत्र विविस्तु प्रकार सत्वा तु भेदमात्रम् सजातीयेषु पञ्च ब्राह्मणक्षत्रिया । प्रकारस्तु नजानीयेपु भिन्नेषु धर्मान्तरेण उपपत्ति । तात्पर्य यह है कि विशेषण या धर्मविशिष्ट के आधार पर भेद करने के लिये विधि गन्द का प्रयोग किया जाता है यथा 'निजागन्तुविभागेन रोगास्तु द्विविधा स्मृता ।' यहाँ पर रोग विशेष्य और निजागन्तु विगेपण । यहाँ पर इन दो विगेपणो को ही आधार मानकर रोग का पार्थक्य किया गया है । यहाँ पर विवि गब्द का प्रयोग है । इसी प्रकार यह विधि का ही उदाहरण है। मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विपमः समश्चेति चतुर्विधः। कफपित्तानिलाधिक्यात् तत्साम्याजाठरोऽनलः ।। परन्तु जहाँ भेदमात्र बभीष्ट है वहाँ केवल संख्या का ही प्रयोग करते है-जैसे 'पञ्च गुल्मा., सप्त कुणानि' आदि । जहाँ ज्वर आदि को विरोप्य
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy