SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय न वामयेमिरिकं न गुल्मिनं नचापि पाण्डुदररोगपीडितम् । ( चरक ) ६३ वस्तु, दोपप्रत्यनीक कर्म नियमत व्याविप्रत्यनीक नही होते । परन्तु व्याधिप्रत्यनीक या व्याधिहर औषधान्नविहार नियमतः दोषप्रत्यनीक या दोपहर होते है । ऐसे द्रव्य व्याधि-हर होते हुए व्याधि-जनक दोप का भी शमन करते है । जन्यथा दोप रूप कारण के नाग न होने पर व्याधि रूप कार्य का नाम नही सभव है । यह श्री वाप्यचन्द्र का मत है । अन्य आचार्यों ने इस नत का खण्डन करते हुए कहा है कि रोगोत्पादक हेतु या कारण तीन प्रकार के होते है--१ समवायि, २ असमवायि ३ तथा निमित्त | इनमे केवल समवायि या निमित्त कारण के नाश से ही कार्य के नाश का निर्देश करना ठीक नही है, क्योकि असमवायि कारण के नाश से भी कार्य का नाग होता है । उदाहरण के लिये-घट को ले । इसके असमवायिकारण कपालद्वय सयोग है इसके नाम से घट का नाश हो जाता है । दूसरा उदाहरण पट या वस्त्र का लें इससे अनमवायि कारण तन्तुसयोग होता है--इस सयोग के नाश से पट का नाश मभव रहता है । उसी प्रकार रोगोत्पत्ति मे दोप- दूष्यसयोग अनमवायि कारण है-- इस असमवायि कारण के नाग से रोग का नाश भी मभव है। दोप दृष्य विशेष सयोग को सम्प्राप्ति ( Pathogenesis ) कहते है इसके नष्ट होने से रोग दूर हो जाता है । रहे दोप तो वे रवत या निदानादि के परिवर्जन से दूर हो जाते हैं । 'दोपास्तु स्वतः क्रियान्तरेण वा निवर्त्तते' (मधु ) तात्पर्य यह है कि सम्प्राप्ति की निवृत्ति से रोग की निवृत्ति हो जाती है । अव यहाँ पुन शका होती है कि इस प्रकार के सयोग के विनाश होने पर भी दोप-दुष्टि बनी रहने पर व्याधि की शान्ति कैसे स्थिर रह सकती है ? एतदर्थ चरक की उक्ति प्रमाण रूप में दी जाती है कि 'किसी वस्तु की उत्पत्ति मे कारण की अपेक्षा रहती है विनाश मे नही । फिर भी कुछ विद्वानो के मत से उत्पादक कारणो की निवृत्ति को ही कार्य के नाश का हेतु माना जा सकता है ।" प्रवृत्तिहेतुर्भूताना न निरोधेऽस्ति केचित्त्वत्रापि मन्यन्ते हेतु कारणम् । हेतोरवर्त्तनम् ॥ इसी आधार पर विजयरक्षित जी ने स्पष्ट कहा है 'दोपस्तु स्वत क्रियान्तरेण निवर्त्तते' अर्थात् दोपदृष्टि स्वयमेव या अन्य उपचारो से दूर हो जाती है । इस कथन के अनुसार व्याधि- प्रत्यनीक उपचार दोष - प्रत्यनीक नही होते | और यदि व्यावि-प्रत्यनीक को हो दोप-निवर्तक स्वीकार किया जावे तो
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy