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________________ प्रस्तावना। 'जिन गुनकथन अगमविस्तार। बुधिवल कौन लहै कवि पार ॥' श्री जिनेन्द्र भगवानके गुण अपार हैं, वे अनन्त हैं, अचित्य हैं ! योगीजन अपनी समाधिलीन अलौनिमित्त । किक दशामें उनके दर्शन एक झांकी मात्र कर पाते हैं। बड़े २ ज्ञानी उनके दिव्य चरित्रको प्रगट करने में अपना साराका सारा ज्ञानकोष खतम कर डालते हैं, पर उनका चित्रण अधूरा ही रहता है। अनी, स्वयं गणधर महाराज जो उत्कृष्ट मनःपर्ययज्ञानके धारक होते हैं, वे भी उन प्रभूके गुण वर्णन करने में असमर्थ रहते हैं । अगाध समुद्रका पारावार एक क्षुद्र मानव कैसे पा सक्ता है ? तिसपर आजकलके अल्पज्ञ मनुष्यके लिये यह बिल्कुल ही असंभव है कि वह ऐसे अपूर्व और अनु"म प्रभूके विषयमे कहनेका कुछ साहस कर सके ! आजसे तीन हजार वर्ष पहले हुये श्रीपार्श्वजिनेन्द्रका दिव्य चरित्र अब क्योंकर पूर्ण और यथार्थ रूपमें लिखा जासक्ता है ? परन्तु हृदयकी भक्ति सब कुछ करा सक्ती है। वह निराली तरंग है जो मनुष्यके हृदयमें अपूर्व शक्तिका संचार करती है । हिरणी इसी भक्ति-इसी प्रेमके बलसे सिहके सामने जा पहुंचती है। अपने बच्चेके प्रेममे वह पगली होजाती है । भक्ति वा प्रेमका यही रहस्य है और यही रहस्य इस ग्रन्थके संकलन होने में पूर्ण निमित्त बन रहा है। भक्तिकी लहरमें एक टक बहकर अपना आत्म-कल्याण करना ही यहां इष्ट है । इसकी तन्मयतामें अपने ज्ञान ज्योतिमय आत्म रूपका दर्शन पानेका प्रयास उपहासास्पद नही हो सकता।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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