SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५९ ] दूसरे रूपमें मिल नही सक्ती । और इसलिये उनके जीवनचरित्र सम्बन्धमें जो भी ग्रंथ उपलब्ध हों, उनमें कोई भी अन्तर नहीं होना चाहिए । किंतु बात दरअसल यूं नहीं है । इन सारे ग्रन्थों में एक दूसरेसे विभिन्नता मौजूद है । और यह विभिन्नता केवल रचनाभेदकी नही है, प्रत्युत जीवन घटनाओं की है । दिगंबर और श्वेतांबर सम्प्रदाय के ग्रन्थोंमे आम्नाय भेदके अनुकूल विपरीतता रहना प्राकृत सुसंगत है; परन्तु स्वयं दिगंबर संप्रदाय के ग्रन्थोंमें भी न्यून रूपमें यही बात देखनेको मिलती है। बेशक उनमें जीवन घटनाओं में अन्तर नही है; परन्तु विवरण में है । लेकिन प्रश्न यह है ऐसा क्यो है ? इसके उत्तर में हम स्वयं कुछ न कहकर प्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० टोडरमलजीके निम्न शब्दोंको उद्धृत कर देना पर्याप्त समझते हैं "ऐसे विरोध लिये कथन कालदोषसे भये हैं । इस काल विषै प्रत्यक्षज्ञानी व बहुश्रुतीनिका तो अभाव भया और स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करने के अधिकारी भये, तिनको भ्रमसे कोई अर्थ अन्यथा भासा तिसको तैसा लिखा अथवा इम काल विषै कई जैनमत बिषै भी कषायी भये हैं । कोई कारण पाय अन्यथा कथन उन्होंने मिलाये हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंके विषै विरोध भासने लगा । सो जहा विरोध भासे तहां इतना करना कि इस कथनवाला बहुतप्रामाणिक है या इस कथनवाला बहुत प्रामाणिक ऐसा विचार - कर बड़े आचार्यादिकनिकरि कहा कथन प्रमाण करना । इत्यादि" - मोक्षमार्ग प्रकाशक अधि० ८ । अतएव काल महाराजकी कृपासे प्रत्येक ग्रंथकार ने जिस
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy