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________________ [४९] एवं दिकपालोंको उनका सेवक होते भी बताया गया है। यह सब कथन एक जैन तीर्थकरके जीवन कथनके बिल्कुल ही समान है; निनकी भक्ति और सेवा देव-देवेन्द्र करते हैं । उनके समोशरणके साथ अनेक देव रहते और दिक्पाल विविध रीतिसे सेवा कार्य करते हैं । दश पर्ययमें व्रात्यके राजाओं और गृहस्थोंके पास जाने और भिक्षा पाने तथा ग्रहस्थ उनको कैसे पड़गावें इस सबका उल्लेख है । यह जैन यतियो और तीर्थंकरोंके सम्बन्धमें ठीक है। परन्तु तीर्थंकरों और सामान्य केवलियोंके लिये केवली पद पानेके बाद यह बातें संभवित नहीं होती। अथर्ववेदमें किसी नियमित रूपमें यह कथन नहीं है बल्कि सामान्य रीतिसे अपनी सुविधानुसार उसका लेखक इन सब बातोंको निर्दिष्ट करता मालूम होता है । व्रात्यको आहारदान देनेके फलरूप पुण्य और सम्पत्तिको पाना भी बतलाया गया है और यह भी जैन दृष्टिके अनुकूल है । इन सब बातोंके देखनेसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अथर्ववेदमें जिन महाव्रात्यका वर्णन है वह कोई जैन तीर्थंकर हैं और बहुत करके वह स्वयं भगवान ऋषमदेवजी ही हैं। अंगरिसने उनका चित्रण इस ढंगसे किया है कि वह वैदिक देवता प्रगट होने लगें । इस प्रकारके चित्रणसे उसका बड़ा लाभ यह था कि वह जैनधर्मके महत्त्वको कम कर सका था। मुसलमानोंके प्रकर्षके समय हिन्दू मतमें मूर्तिपूजाका खंडन इसी कारण हुआ था कि मुसलमानोंका' प्रभाव हिन्दुओंपर न पड़े। इस प्रकार इस कथनसे अब यह बिल्कुल प्रमाणित है कि जैनधर्म वैदिक कालमें मौजूद था, जैसे
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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