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________________ [४५ ] कोई भी ऐसे शब्दोंका प्रयोग नहीं कर सक्ता है । इसलिए इन शब्दोके प्रयोगसे उस पुरुषका भाव निकलता है जिसने सम्पूर्ण सांसारिक सम्बंधोंको त्याग दिया हो, जो ग्रहस्थ न हो और यति जीवनको पहुंच कर दिगम्बर साधु होगया हो। 'सम' शब्दके अग्रप्रयोगसे लक्षित है कि वह कामवासनासे रहित है । अतएव यह वर्णन ठीक है और वह व्रात्यो अथवा व्रतीयोंमें ज्येष्ठ (मुनि )के पदके लिये आवश्यक है । सायण इस शब्दकी व्याख्या करते हुये 'समनिचमेद्रों की एक प्राचीन सम्प्रदायका उल्लेख करते हैं, जो 'देव सम्बंधिन' थे और जिनके लिये एक खास व्रात्यस्तोत्र रचा गया था। इससे प्रगट है कि यह प्राचीन संप्रदाय थी और शुद्ध भी थी। शेप 'निदित.' शब्दका व्यवहार व्रात्योमें सर्व निम्नभेदका द्योतक है । यह पहले ही कहा जाचुका है कि व्रात्यों (जैनो )में श्रद्धानी पुरुष सबसे नीची अवस्था में होते हैं और उनमें अनार्य लोग भी दीक्षित कर लिये जाते हैं। सचमुच अव्रती श्रावकोंमें ऐसे सब ही तरहके श्रद्धानी लोग समिलित होते है। जैनशास्त्रोंमें इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। समाजसे बहिष्कृत और पातकी पुरुष भी पश्चात्ताप करने और आत्मोन्नतिके भाव प्रगट करनेपर' जैनाचार्यों द्वारा धर्म मार्गपर लगा लिये जाते हैं। अतएव 'निंदित.' . ' शब्दसे ऐसे पुरुषों को भी व्रात्यों (वैदिक कालके जैनो )में निर्दिष्ट किया गया है; क्योंकि वे व्रती पुरुषोंके संसर्गमें रहते थे और उस समय सब प्रकारके जैनों के लिये यही शब्द (वात्य) व्यवहृत होता था। इन्हीं निंदित पुरुषोंके कारण ब्रात्य शब्दके ओछे भाव भी वैदिक शास्त्रोंमें प्रगट किये गये मिलते है।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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