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________________ [३८] टीकाकार सावण इन यातियोक कपालको 'महा खर्जूर फल' के समान अर्थात् बिल्कुल त्रुटी हुई बतलाते हैं । जैसि कि वस्तुतः जैन चतियोकी होती हैं | हिन्दू पद्मपुराण आदि ग्रन्थोंमें जैन मुनि - योंका वर्णन करते हुये उन्हें ' सितमुण्डो ' बतलाया है । इससे अहिंसाघमेके अनुयायी जैनोका अस्तित्व उपरांत के वैदिक कालमें सिद्ध होता है । इसतरह भी 'व्रात्यों' का जैन होना प्रकट है; क्योकि उपरोक्त उल्लेखोंसे उस समय जैन यतियोंका होना प्रमाणित है । अस्तु. । जैनाचार ग्रन्थों में चारित्र के दो भेद (१) अणुव्रत और (२) महाव्रत किये गये हैं । अणुव्रत गृहव्रतोंको पालनेकी मुख्य- स्थोंकि लिए हैं और महाव्रतों का पालन तासे जैनोंका प्राचीन यतिगण करते है । महाव्रतों को 'अग्रवत' नाम त्रात्य है । अथवा ' अनागारव्रत ' भी कहते हैं । जैनधर्म प्रारम्भ से ही अजैनोंको दीक्षित करनेका हामी रहा है । आर्य और अनार्य सब ही उसमें दीक्षित किये नाचुके हैं ।' गृहस्थों अथवा श्रावकोंके लिये ग्यारह प्रतिमार्यो (दर्जी) का विधान है और सबसे नीची व्यवस्थामें केवल जैनधर्मका श्रद्धानी होना पर्याप्त है उसमें व्रों तकका अभ्यास नहीं किया जाता है इसलिए यह अवतदृशा कहलाती है । ब्राह्मण अन्योंमें इनका डेस व्रत्य धन पानेके योग्य पुरुषके रूपमें हुआ है । इनमे बढ़कर बनी श्रावक हैं यह कुछ व्रतों का पालन करते व प्रतिमाओंमें विशेष २ व्रत जैसे सामायिक, है । फिर १ से ४० ३००-३८१ व ४२३-४२७ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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