SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवानका निर्वाणलाभ! [३७१. हृदयोंमें मोदभाव छारहा था । सबही प्रसन्न हुये मीठे २ राग अलाप रहे थे ! शुक्लपक्ष अपनी विमलताका परिचय देरहा था। मानों स्पष्ट ही कह रहा था कि मैं सार्थक नाम हूं। जैसा मेरा नाम है वैसा मेरा काम है। शुक्लभावोंका पूर्ण प्रार्दुभाव मेरे ही शुक्ल आलोकमें होतक्ता है। मेरे ही धवलरूपका साथी इस विशाखा नक्षत्रमें आज अपना वैभव दिखला सक्ता है। आजका दिन ही इस पुनीत ससर्गसे हमेशाके लिये पवित्र और पावन बन गया है। वह देखिये प्राकृत संकेतोको पाकर इस दिव्य अवसर पर स्वर्गलोकके देवगण भी आ रहे हैं । इन्द्र-इन्द्राणी और देव देवाङ्गनायें अपने २ विमानोमें बैठे हुये जयजयकार करते हुये चले आरहे हैं। सब ही पुलकितबदन होरहे है। इधर पृथ्वीपर देखिये तो सब ही राना महाराना, सेठ और साहूकार प्रसन्नतापूर्वक भगवान पार्श्वनाथकी विरदावलि गाते बढे चले आरहे है । पशु-पक्षी और वृक्ष लतायें भी प्रफुल्लत हुये दृष्टि पडरहे है । जरा और नजर पसारिये, देखिये । दिशायें निर्मल होगई है-भव्य शैल महामनोहर दीख रहा है। यह श्रावण शुक्ला सप्तमीका दिवस ही अनुपम है। भला यह दिवस अनुपम क्यों है ? इस रोज इन्द्र और देव, राजा और प्रजा कब और क्यों आनन्द मनाने आये थे ? आये थे तो कहां आये थे ? इन सब प्रश्नोका समाधान भगवान पार्श्वनाथजीके शेप जीवनपर नजर डालनेसे हल होनाता है। शास्त्रोमें वतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथनीने विहार और धर्मप्रचारमें पांच महीने कम सत्तर वर्ष व्यतीत किये थे। उपरान्त वे श्रीसम्मेदाचल पर्वतकी परमोच्च शिखरपर आनकर विराजमान हये थे।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy