SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ ] भगवान् पार्श्वनाथ | घुसने से रोका; किन्तु शिष्योंके आग्रहसे यह नगरी में चले गए और वहां पश्चिम परकोटेके पास पवित्र स्थानपर आसन मांड़कर घोर बैठ गए। चामुण्डदेवीको यह बात बुरी लगी। उसने इनपर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया | अनेक प्रकार के उपद्रव होने लगे, पर तो भी यह मुनिराज अपने ध्यानसे विचलित न हुए । प्रत्युत इनका ध्यान बढता गया और अन्तमें इन्होंने कर्मोका नाशकर मोक्षघामको प्राप्त किया । विद्युच्चर मुनिराज के पादपद्मोसे तामृलिप्ति नगरी पवित्र होगई - वह निर्वाण स्थान वन गया । यह राजपुत्र विद्युच्चर मुनि भी भगवान पार्श्वनाथजी के तीर्थमें हुए माने जाते है । ( देखो वगाल, विहार जैन स्मारक ८० १२१ ) DE ( २३ ) राजा वसुपताल और चित्रकार ! ' पादपद्मद्वयं नत्वा जिनेन्द्रस्य शुभप्रदम् । उपधानकथावक्ष्ये यतः सौख्यं भजाम्यहम् ||' - ब्रह्मनेमिदत्त । श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मनोज्ञ प्रतिमापर चतुर कारीगरने बड़ी सुन्दरतासे लेप चढ़ाया, परन्तु रातके वीचमें वह स्वयमेव ही उतर पड़ा। चित्रकार बड़ा विस्मित हुआ । उसने समझा कि कोई त्रुटि होगई होगी, इसी कारण यह लेप उतर पड़ा है। परंतु दूसरे दिन और तीसरे दिन भी यही घटना घटित हुई । चित्रकार बड़े -असमंजस में पड गया ! कई दिन उसे ऐसे ही बीत गये । उसकी समझमें न आया कि ऐसा क्यों होता है ? I
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy