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________________ ३३४] भगवान पार्श्वनाथ । __ अवश्य ही बनगया पर वह दूरसे ही उसके सौन्दर्यसे अपने नेत्र सफल करना चाहता था। स्त्रियोंके प्रति जो उसके कटुभाव थे, उनको उसे कामिनीकी रूप-राशि भी दूर न कर सकी थी। कितु इतना होते हुये भी सागरदत्तके बन्चुननोने उसका वाग्दान संस्कार उस कन्यारत्नसे कर दिया ! संभव था कि इस सम्बन्धसे सागरदत्तका मनोभाव बदल जाताः पर ऐसा न हुआ और इस बातका पता उस कन्याको भी चलगया । वह बड़ी ही खेदितमना हो गई; पर निगश न हुई। उमने एक श्लोक लिखकर सागरदत्तके पास भेज दिया। जिसमें उसने लिखा था कि 'हे बुद्धिमान पुरुषरल ! आप इस महिलाका अनादर क्यो करते है, जो सर्वथा आपकी अननुगामिनी बनी हुई हैं ? पूर्णिना चद्रको अपने आप चमका देती है, वसे ही बिजली समुद्रको और स्त्री गृहस्थको प्रकाशमान बना देती है। सागरने इस श्लोको पड़ डाला और यह भी उसके हृदयको पलटने में असफल हुआ । उसने इसके उत्तरमें उपरोक्त श्लोक लिख भेजा, जिसका भाव था कि 'एक नदीके समान स्त्री स्वभावसे ही चपल और नीचगामिनी है। जिस समय वह वन्धनकी अपेक्षा नहीं करती है तो दोनों पक्षोंका नाश करती है । बस वह जड़ बुद्धि है।' मागरदत्त के इस उत्तरको पाकर वह चतुर वणिकसुता जान गई कि जरूर किसी स्त्रीके असदव्यवहारने इनके हृदयको दूषित पर रक्खा है । इसलिये हताश होनेकी कोई बात नहीं है । वात भी वास्तवमें यूं ही थी। सागरदत्त अपने पूर्वमवमें एक विप्र था और इसकी स्त्रीने इसे विप देकर मारनेका प्रयत्न किया था। यही
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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