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________________ भगवान्के मुग्व्य शिष्य । [३०९ देवस्य तीर्थमघसार्थहरं नरेषु, प्राभावयत् त्रयविधिर्नन विश्वसेनः ॥४३॥' अथातु-'भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिसे नम्रीभूत, उत्तम राज्यसे शामित तीन ज्ञानके धारक राजा विश्वसेन पापोंके नाशक भगवान जिनेन्द्रके तीर्थकी मनुष्योंमें प्रभावना करने लगे थे। ऐसे ही धर्मवत्सल भक्तोंके द्वारा शीघ्र ही भगवान के शासनकी विजय वैजयंती सर्वत्र फहराने लगी थी। भगवान पार्श्वनाथनीकी पवित्र स्मृतिमें अनेक स्थानोंपर दिव्य मदिर और चैत्यागार निर्मित हो गये थे। जिनमें सदा ही भगवानका यशगान हुआ करता था ! यही नहीं कि भगवानके शिष्य भारतवासी ही रहे हों, बल्कि विदेशोंके भी बहुजन आपके परम भक्त थे। नील-महानील और अमितवेग आदि विद्याधर लोग भारत बाह्य प्रदेशके राज्याधिकारी थे। उन्होंने भारतम तीर्थ वन्दना करते हुये तेरपुर (उस्मानाबाद)के निकट अनेक जैन मंदिरोंको निर्मापित कराया था और उनमें मणिमई श्री पार्श्वनाथनीकी प्रतिबिम्ब बिराजमान की थी। सारांशतः भगवानकी भक्ति-सौरभका मधुर गुनार दिग् दिगान्तरोमें फैल गया था ! भगवान् पार्श्वनाथजीके प्रमुख गणधर स्वयंभू नामके थे। यही सर्व प्रथम भगवान्की अमृतवाणीको ग्रहण करनेवाले नर-रत्न थे। इन्होने ही भगवानकी दिव्यध्वनिको अवधारण करके द्वादशाङ्गरूप, पूर्वोकर सयुक्त जैन आगमकी रचना की थी। वही आगम भगवान् महावीरके सर्वज्ञ होने तक सर्वत्र प्रचलित रहे थे । हत्भाग्यसे इन प्रमुख गणधर महारानके विषयमें कुछ भी विशेष परिचय नहीं १ मुनि कणयामर विरचित 'करकंडुचरित्र' सधि ५।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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