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________________ २९०] भगवान पार्श्वनाथ । रूप दिया था, वह उन पर किसी बाह्य प्रभावको पड़ा व्यक्त करती है। उनका कहना था कि सृष्टिका सद्भाव प्रजापतिसे हुआ है जो सार्वभौमिक पुरुष (वैश्वानर पुरुष) अथवा सूर्य है जिसका स्वभाव अग्नि है। सृष्टि रचना करनेकी इच्छा करके प्रजापतिने अपने स्वभावका ध्यान किया और उसके बल अपने शरीरमेंसे एक जोड़ा (मिथुन) पुद्गल (रयि) और प्राणको उत्पन्न किया। इन्हींसे सृष्टि होगई।' यही दोनो-रयि और प्राण-साख्यमतके पुरुष और प्रकृतिके समान ही है, जिनकी सदृशता जैनधर्मके जीव और अनीव भेदसे बहुत कुछ है । एकदृष्टिसे पिप्पलादने अपने उक्त मन्तव्यमें भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशकी नकल ही करनी चाही है। भगवानने कहा था कि मूलमें जीवात्मा ही अपना संसार आप बनाता है और स्वभाव अपेक्षा सब ही नीव एकसे है। इसलिये वही स्वयं सृष्टिके रचयिता हैं, जिसमें पुद्गल और व्यवहार प्राणोंकी मुख्यता है। यही नहीं, वह यह भी कहता है कि प्राण (-चेतनामई जीव) ही पुद्गलको एक नियमित शरीरका रूप देते हैं और जब वह उससे - अलग होता है तब वह शरीर नष्ट होनाता है । भगवान् पार्व नाथने पुद्गलमई शरीरसे जीवका अलग होना और उसके अलग होनेपर शरीरका विघटना बतलाया ही था। पिप्पलाद जो इस प्रकार ईश्वरवादको नये ढंगसे जैनधर्मसे सशता रखता हुआ, प्रतिपादन कर रहा है, वह भगवान पार्श्वनाथनीके धर्मप्रभावके कारण ही कहा जा सकता है। पिप्पलादसे कौशलके आश्वलायनने कतिपय प्रश्न किये थे। १-प्री-बुद्रि० इन्डि० फिला० पृ० २२८ । २-पूर्व. पृ. २०९ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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