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________________ २८८] भगवान् पार्श्वनाथ । दई तीन परदच्छिना, प्रनमें पारसदेव । स्वामि-चरन संयम धस्यो, निंदी पृरव देव ।। धन्य जिनेसुरके वचन, महामंत्र दुखहंत । मिथ्यामत-विषधर-उसे. निर्विप होहि तुरंत ॥" धेपुराण) सर्वज्ञकथित वाणीका प्रभाव सर्वव्यापी होना स्वाभाविक ही है । उसके समक्ष अल्पमतिवाले एकात पक्षियों अपने मार्गमें रहना कठिन है। भगवान पार्श्वनाथजीके उस समयकी धार्मिक प्रगतिपर यदि दृष्टि डाली जावे तो वहांसे भी इस ही व्याख्याकी पुष्टि होती है। उनके उपरान्तके प्रख्यात मतप्रवर्तकोंमें हम खास तौरपर हिंसा कार्यको दूसरी तरहसे समर्थन करते हुये पाते है। वह जीवात्मा और पाप पुण्यको मेटकर अपनी चिरग्रसित जिह्वा. लंपटताकी सिद्धि करते हुये पाये जाते है। इतनेसे ही कार्य नहीं चला था, बल्कि यह खाप्त मतप्रवर्तक अपने मूल वानप्रस्थ धर्मसे अलग होकर नये मतोंका प्रचार करने लगे थे। आजीवक संप्रदायका जन्म इसी समय वानप्रस्थोंमेंसे हुआ था और उन्होने भगवानके बताये हुए वर्ममें से भी मुनिके दिगंबर मेष और पूर्वोमेसे कुछ अंश ग्रहण कर लिया था। साधारण रीतिसे यहांपर इन खास मतपर्वतकोंकी चर्या पर एक दृष्टि डालकर यह देख लेना सुगम होगा कि सचमुच भगवान पार्श्वनाथके उपदेशका प्रभाव उस समय दिगन्तव्यापी होगया था। १-भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० १६-२०१२-भगवान महावीर पृ० १६३ और वीर वर्ष ३ अंक ११-१२।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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