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________________ भगवानका धर्मोपदेश ! [२७५ दूसरेके लिये जीवित प्राणियोंके प्राणोंको अपहरण करता है, न गिरी पड़ी, भूली और पराई वस्तु ग्रहण करता है, न परस्त्रियोंसे संभोग करता है, न झूठ और न दूसरोंके प्राणों को संकटमें डालनेवाला सत्य ही कहता है एवं तृष्णाको एकदम बढ़ने न देनेके लिये अपनी सांसारिक आवश्यक्ताओंको नियमित कर लेता है। सचमुच ग्रहस्थ अवस्थामें इन व्रतोंका पालन करनेसे एक ग्रहस्थ संतोषी और न्यायप्रिय नागरिक बन सक्ता है । परन्तु इस चौथे गुणस्थानमें वह इन व्रतोंको धारण करनेमें स्वभावतः असमर्थ होता है। उसके मोहनीयकर्मकी इतनी जटिलता है कि वह सहसा व्रतोंको धारण नहीं कर सक्ता है, यद्यपि उसको सच्चे देव, शास्त्र और तत्वका श्रद्धान होता है । इस सच्चे श्रद्धानकी बदौलत ही जीवास्मा उन्नति करके पाचवे गुणस्थान में पहुंचता है। इसीलिये श्रद्धानका ठोक होना बहुत जरूरी है। सम्यक् श्रद्धान ही सन्मार्गमें लगानेवाला है। ५. देशविरत-गुणस्थानमें जीवात्मा व्रतों का एक देश पालन कर सक्ता है । वह जानबूझकर हिसादि पांच पापोसे दूर रहता है। श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओं का समावेश इस गुणस्थान तक होजाता है । इन ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप इस तरह है-यह संसार में फंसे हुये गृहस्थको क्रमकर मोक्षके मार्गपर लानेवाली है । इनमें प्रवृत्ति मार्गसे छुड़ाकर निवृत्ति मार्गकी ओर उत्तरोत्तर बढ़ानेका ध्यान रक्खा गया है । पहली दर्शन प्रतिमामें एक व्यक्तिको जैन धर्ममें पूर्ण श्रद्धान रखना होता है। उसे उसके सिद्धान्तोंका अच्छा परिचय होना आवश्यक रहता है तथापि वह मांस, मधु, मदि
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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