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________________ भगवानका धर्मोपदेश! [ २७३ - गम होनाता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप ही मोक्षका मार्ग है । इस मार्गका अनुसरण करके जीवात्मा अपनेको कर्मोके फन्देसे छुड़ा लेता है । गत जन्मोंमें किये हुये कर्मोको वह क्रमकर नष्ट कर देता है और आगामी ध्यान-ज्ञानकी उच्चतम दशामें पहुंच कर उनके आनेका द्वार मूंद देता है। फिर वह अपने रूपको पा लेता है । जो वह है सो ही बन जाता है। जीवात्माकी आत्मोन्नतिके लिहाजसे ही भगवानने उसके लिये चौदह दर्ने बताये हैं, जिनको गुणस्थान कहते हैं। मोहनीय कर्म और मन, बचन, कायकी क्रियारूप योगके निमित्तसे जो आत्मीक भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हींको गुणस्थान कहते हैं । जितने२ ही यह भाव आत्माके शुद्ध स्वरूपकी ओर बढ़ते जाते हैं उतने ही जीवात्मा आत्मोन्नति करता हुआ गुणस्थानोंमे बढ़ता जाता है । यह चौदह गुणस्थान क्रमकर मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली रूप हैं। इनमें से पहलेके पांच गुणस्थानोंको पुरुष, स्त्री, गृहस्थ और श्रावक समान रीतिसे धारण कर सक्ते है । ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा पर्यंत, जिसमें गृह त्यागी व्यक्तिके पास केवल लंगोटी मात्रका परिग्रह होता है, श्रावक ही संज्ञा है। इस ग्यारहवीं प्रतिमापर्यंत स्त्रियां भी श्रावकके व्रत पाल सक्ती है। शेषमें छठे गुणस्थानके उपरात सव ही गुणस्थानोंका पालन तिलतुष मात्र परिग्रह तकके त्यागी निग्रंथ मुनि ही कर पाते हैं । इन गुणस्थानोंका स्वरूप संक्षेपमें इस तरह समझना चाहिये
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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