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________________ भगवानका धर्मोपदेश ! [२६९ सार ही वह कम और अधिक रीतिसे अपनी स्वाधीनताका उपभोग कर सक्ता है; परन्तु इसके माने यह भी नहीं है कि जैसा कर्म उसे नाच नचायंगे वैसा वह नाचेगा ! वह अपनी किंचित व्यक्त हुई आत्मशक्तिको मौका पाकर पूर्ण व्यक्त करनेमें प्रयत्नशील होसक्ता है-बराबर प्रयत्न जारी रखनेपर वह जटिलसे जटिल कर्मबंधनको नष्ट कर सक्ता है, क्योंकि आखिरको वह स्वाधीन और पूर्ण शक्तिवान ही तो है। इसलिये भगवान्ने सर्व जीवन घटनाओंको बिल्कुल परिणामाधीन अथवा कर्माश्रित ही नहीं माना था और इसतरह प्राकृत रूपमें जीवात्माके दो भेद शुद्ध और अशुद्ध अथवा मुक्त और संसारी बताये थे । मुक्तनीव इसलोककी शिखरपर सदा सर्वदा अनन्तकाल तक अपने सुखरूप स्वभावमें लीन रहते हैं और संसारी जीव इस संसार में अपने भले बुरे कर्मोके अनुसार उस समय तक रुलते रहते है जबतक कि वह सर्वथा कर्मोसे अपना पीछा नहीं छुड़ा लेते है । संसारी जीवोंका दश प्राणों के आधार पर जीवन यापन होता है । वे दश प्राण स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्ररूप पांच इद्रिया, मन, वचन, कायरूप तीन बल; आयु और श्वासोच्छ्वासरूप हैं। यह दश प्राण भी व्यवहारके लिये हैं वरन् मूलमें निश्चयरूपसे एक चेतना लक्षण ही जीवका प्राण है । इंद्रियोकी अपेक्षा जीव एकेंद्रिय, दो इद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पांच इद्रियरूप हैं । एथिवीकाविक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक अनेक प्रकारके स्थावर--एक जगह स्थिर रहने वाले जीव एकेंद्रिय है और गंख, कीडी, भौंरा तथा मनुष्य या पशु पनी कसे द्वीन्द्रिय,
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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