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________________ २६६] भगवान् पार्श्वनाथ । लिये पीतलेश्यामें आना भी कठिन है। फिर भला नील और कृष्णलेश्यावालोंकी तो बात पूछना ही क्या है ? उपरकी तीन शुभ लेश्यायोंरूप जिसका जीवनव्यवहार होगा, वही अपने निजस्वरूप अर्थात् सच्चे सुखको जल्दी पा सकेगा। इसतरह भगवानका धर्मोपदेश हरतरहसे मनुष्यको स्वाधीन बनानेवाला था। उसको वस्तुका स्वरूप, सचे सुखका मार्ग और मार्गको प्रकट बतलानेवाला कुतुबनुमा जैसा यंत्र भी अच्छीतरह समझा दिया गया था। अतएव यह मनुष्यकी इच्छापर निर्भर था कि चाहे वह पराधीन बना रहे और चाहे तो स्वाधीन बनकर सच्चे सुखको पाले । यह बात उस समयके लोगों को भगवानके धर्मोपदेशसे विलकुल स्पष्ट होगई थी कि जीवात्मा स्वय अपने ही बलसे सच्चे सुखको पासक्ता है। इसलिये वह अपने ही आत्माका आश्रय लेना हर कार्यमे आवश्यक समझने लगे थे। स्वातंत्र्यप्रिय बनकर वह न्यायोचित रीतिसे जीवन यापन करते थे और अपना उद्देश्य सचे सुख-मोक्षधामको पाने में रखते थे। इसके लिए श्रीकुन्दकुन्दाचायके शब्डोंमें वे लोग निम्न आयको काममें लाते थे: "जह णाम कोवि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्यत्थीओ पयत्तेण ॥२०॥ एवं हि जीवराया णादव्यो तहय सद्दहे दव्यो। अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेवदु मोक्रसकामेण ॥२॥" ॥समयसार । भाव यही है कि निसप्रकार छोई धनका लालची पुरुष रानाको नानकर उसमें श्रद्धा कर लेता है और उनकी सेवा भक्ति
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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