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________________ __ २५८] भगवान पार्श्वनाथ । भगवानके उस स्वाधीन संदेशका समुचित आदर हुआ । उस समय लोग यह जाननेके लिये उत्सुक हो उठे कि आखिर संप्तारमोहमें फंसा हुआ यह जीव किसतरह सुख-दुख भुगतता है । इसके भले-बुरे कार्योका फल सुख दुखरूपमें क्योकर मिल ___ जाता है ? कोई बाह्यशक्ति तो ऐसी है नहीं जो इसे सुख-दुख __ पहुंचाती हो और यह सुख-दुखका अनुभव करता ही है। इसका भी कोई कारण होना चाहिये ! भगवान पार्श्वनाथके निकटसे उनकी इस शंकाका समाधान होगया था । भगवानने बतला दिया था कि इस लोकमें एक ऐमा सुक्ष्म पुद्गल (Matter) मौजूद है, जो संसारी जीवात्माकी मन, वचन, कायरूप क्रियाकी प्रवृत्ति, निसको कि योग कहते हैं, उसके द्वारा उसकी ओर आकर्षित होकर कषायादिके कारण उससे संबंधित होजाता है । यही उसे सुख और दुखका अनुभव कराता है । जीवात्मा अनादिसे इस पुद्गलके संबंधमें पड़ा हुआ है और इसके मोहमें पड़ा इच्छाका गुलाम बन रहा है। इस इच्छा राक्षसीके फरमानोंके मुताबिक उसे अपने मन, वचन और कायको प्रगत्तिगील बनाना पड़ता है, जिसके कारण सूक्ष्म पुद्गलपरमाणु उसमें उसी तरह आर चिपट जाते हैं जिस तरह शरीरमें तेल लगाये हुये मनुप्यकी देहपर मिट्टी स्वयं आकर जकड़ जाती है। जीवात्माकी मन, वचन और कायरूप क्रिया मुख्यत. क्रोध, मान, माया, लोभरूप होती है । वप्त जितनी ही अधिस्ता और तीव्रता इन क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषायोके करनेमें होती है उतने ही अधिक और तीव्र रूपसे सूक्ष्म पुढ़ल परमाणुओं, जिनको कर्मवर्गणायें कहते हैं, का आगमन उसमें होता है और उतना ही
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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