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________________ २५६] भगवान पार्श्वनाथ । जीव नित्य है । वह अनादिकालसे इस संसारके झूठे मोहमें पड़ा हुआ दुःख भुगत रहा है । परपदार्थ जो पुद्गल है उसके संबन्धमें पड़ा हुआ यह जीव एक भवका अन्त करके दूसरे में जन्म लेता है। इस तरह यद्यपि संसारमें वह जन्म-मरणरूपी परिभ्रमणमें पड़ा रुलता रहता है, परतु वह मूलमें अपने स्वभावसे च्युत नहीं होता है।' वह अपने स्वभावमें अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य रूप है; कितु पौद्गलिक सम्बन्धके कारण उसके यह स्वाभाविक गुण जाहिरा प्रगट नहीं रहते हैं । वह उसी तरह छुप रहे हैं जिस तरह गंदले पानीमें उसका निर्मल रूप छुप जाता है । इस तरह जीव और पुद्गल अर्थात् अनीवकी मुख्यतासे ही इस लोकमें विविध अभिनय देखनेको मिल रहे हैं। अनीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप हैं। पुद्गल स्पर्श, रूप, रस, गंधमय है और इसका जीवसे कितना घनिष्ट संबंध है, यह ऊपरके कथनसे प्रकट है । यह अनंत है और अणुरूप है । धर्म और अधर्म द्रव्योका भाव पुण्य-पाप नहीं है। यह एक स्वतत्र प्रकारका पदार्थ है जो जीवको क्रमसे चलने और ठहरनेमें सहायक है । जिप्त तरह पानी मछलीकी सहायता करता है उसी तरह धर्म द्रव्य जीवकी गतिमें सहायक है और जैसे वृक्षकी छाया १ वान्दो 'ब्रह्मजालसुत्त में प्राचीन श्रमणोंका ऐमा ही श्रद्धान वतलाया गया है। वहा लिखा है कि अमणोंके अनुसार 'जीव नित्य है; लोक किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देता है । वह पर्वतकी भाति स्थिर है । यद्यपि जीव ससारमें परित्रमण करते है तो भी वे हमेगा सके पैसे रहते है। यह उल्लेख भगवान पाश्वनाथके सम्बन्धमें है। इसके लिए देखो भगवान महावीर और म० दुद्ध पृ० २२० ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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