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________________ भगवानका धर्मोपदेश ! [२४७ प्राच्यविद्याअन्वेषकोको भी यही व्याख्या यथार्थ प्रतीत हुई है। उनमेंसे एकका कथन है कि 'इम ही प्रकारके अथवा इससे मिलने हुए प्रकारके धर्मके मुख्य विचार महावीरस्वामीके पहले भी प्रवर्तते थे, ऐना माननेमे भी कोई बाधा नहीं आती। मूल तत्वोंमें कोई स्पष्ट फर्क हुआ, ऐसा मानने का कोई कारण नजर नहीं आता और इसलिये महावीरस्वामीके पहले भी जैन दर्शन था, ऐसी जैनोकी मान्यता स्वीकार की जासक्ती है। ..इसके लिये हमारे पास कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, परन्तु साथ ही इसके विरुद्ध भी कोई प्रमाण नहीं है । जैनधर्म का स्वरूप ही इस बातकी पुष्टि करता है, क्योंकि पुद्गल के अणु आत्मामें कर्मकी उत्पत्ति करते हैं, यह इसका मुख्य सिद्धान्त है और इस सिद्धान्त की प्राचीन विशेघताके कारण ऐमा अनुमान किया जाता है कि इसका मूल ई . सन के पहले ८वी-९वी शताब्दिमे है ।" अतएव भगवान पार्श्व नाथने भी ऐसा ही धर्मोपदेश दिया था, जैसा कि आज जैनधर्ममें मिलता है, यह मान लेना युक्तियुक्त है। श्वेताम्बर शास्त्रों के कथनसे भी हमारे उपरोक्त मन्तव्यमे कुछ बाधा नहीं आती है । उनका भी कथन दिगम्बर जैनशास्त्रोके अनुसार इस व्याख्याकी पुष्टि करता है कि मूलमें सब तीर्थंकरोंका धर्म एक समान होता है, परन्तु समयानुसार उनके प्रतिपादन क्रममें अथवा चारित्र नियमोमें कुछ अन्तर पड सक्ता है, यद्यपि वह मूल xGlassenapr, Ephemernds Orientales No. 25, P. 13 & Cambridge History of India-Ane. India. Vol. I. P. 154. १-जैनजगत वर्ष १ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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