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________________ २४२] भगवान पार्श्वनाथ । सर्वदा एकसा होना जरूरी प्रमाणित होता है। तो फिर यहां क्या बात है ? इसके लिये तीर्थकर भगवानके बताये हुए स्यावाद सिद्धांतका आश्रय लेना समुचित प्रतीत होता है। प्रत्येक वस्तुमें अनेक गुण है और परिमिन शक्तिको रखनेवाले मनुष्यके लिये यह संभव नहीं है कि वह एक साथ ही उसके सब गुणोका निरूपण कर सके । वह अपेक्षा करके ही उनका उल्लेख करेगा । यदि कोई कहे कि कुचला प्राण शोषक है, तो उपका यह कथन सर्वथा सत्य नहीं है, क्योकि कुचलेमें प्राण पोषक तत्व भी मौजूद है । वातरोगमें चह बड़ा ही लाभप्रद है । इसलिये यह नहीं कहा जातक्ता कि कुचला प्राण शोषक ही है। अतएव तीर्थंकर भगवान के धर्मोपदेशके विषयमे भी यही बात है। समय प्रवाहकी अपेक्षा उसके विधायक क्रममें किंचित् अन्तर उसी हद तक होता है जो उसके मूल भावका नाशक न हो और मूल भाव अथवा सैद्धातिक तत्व पदा सर्वदा एक समान ही रहेंगे। यही वात दिगम्बर और श्वेतापर सम्प्रदायके शास्त्रोमें निर्दिष्ट की हुई मिलती है। दिगम्बर सम्प्रदायमें श्री वट्टरेर नामक एक प्राचीन और 'प्रसिद्ध आचार्य हुये है। उनका 'मूलाचार' नामका एक यत्याचार विषयक ग्रन्य विशेष प्रामाणीक और बहु प्रचलित है । इस ग्रंथमें श्री चट्टकेराचार्य ने सामायिकका वर्णन करते हुये स्पष्ट रोतिसे कहा है कि'वावीसं तित्ययरा सामाइयं संजमं उवढिसंति । छेदोवठ्ठावणियं पुण मयवं उसहो य वीरो य ॥७-३२|| अर्थात्-'अजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत वाईस तीर्थंकरोंने सामायिक संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने 'छेदो
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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