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________________ २४०] भगवान पार्श्वनाथ । चौथे कालमें भी सर्वदा एकसा समय नहीं रहा था । जो आयु, काय, बल आदि शक्तियां भगवान ऋषभदेवकी थीं, वह भगवान पार्वनाथकी नहीं थीं, यह पहले जैनशास्त्रके उद्धरणसे प्रकट हो चुका है। अस्तु इस दशामे जैनियोंकी तीर्थकरोंके एक समान सनातन धर्मोपदेश देनेकी मान्यता कुछ असंगतसी जंचती है और इस दृष्टिसे यह है भी ठीक ! परन्तु तीर्थंकर भगवान द्रव्योंका यथावत स्वरूप बतलाते हैं। जो वस्तुका स्वरूप है वही वह निर्दिष्ट करते हैं। वह सर्वज्ञकथित एक वैज्ञानिक भाषण है । इसलिये उसमें अन्तर पड़ना कभी और किसी दशामें भी संभव नहीं है । मे सिद्धान्त और जो तत्व एक तीर्थकरने बता दिये है, वही सिद्धान्त और वही तत्व दूसरा तीर्थकर भी बतायगा: क्योकि सब ही तीर्थकर सर्वज्ञ होते हैं और उनकी सर्वज्ञतामें कुछ मी अन्तर नहीं होता । इसलिए जो बातें एक सर्वज्ञ तीर्थकर वतागा, उसके विरुद्ध दूसरा सर्वज्ञ कुछ कयन कर ही नहीं सक्ता और यह प्रत्यक्ष प्रमाणित है। आन भगवान महावीरके बताये हुये जनधर्ममें सात तत्व बतलाये हुये मिलते है । अब यह कभी भी सभव नहीं है कि किसी भी तीर्थकरके धर्मोपदेशमें इन सात नबॉकी सस्या घटा बढ़ा दी जाय अथवा इनका क्रम उदल दिया न. : आन यह वैज्ञानिक ढगमे निर्णीत है-जीव-अनीव मुख्य दो द्रव्य इस लोकमें हैं। उपयोग चेतना लक्षणको धारण करनेवाला व है और अनीवमें यह लक्षण नहीं है | जीव अनीव पुहलके मवन्धने मासारिक दुवसागरमें गोते लगा रहा है। अपने मन, ६चन, क.यकी म्ली बुरी क्रियावासी व.पाय प्रवृत्तिके नुसार वह
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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