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________________ भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [२०७ 'शब्दोंका उनके पास कोई समुचित उत्तर नहीं था। उन्होंने समझ लिया कि इनके द्वारा तीनों लोकका कल्याण होनेवाला है; इसलिये 'इनके परमार्थ भावपर अवलंबित निश्चयमें अडंगा डालना वृथा है। राजकुमार पार्श्व इसके उपरांत श्रावकों के व्रतोंका पालन करते हुये -रहने लगे। एक दिवसकी बात है कि वह प्रसन्नचित्त रान-सभामें बैठे हुये थे, उसी समय द्वारपालने आकर सूचना दी कि अयोध्याके नरेश राजा जयसेनका दूत उनके लिये प्रेमोपहार लेकर आया है और सेवामें उपस्थित होनेकी प्रार्थना कर रहा है। द्वारपालका यह निवेदन स्वीकृत हुआ और उसने राज अनुमति पाकर दूतको समामें भेज दिया। इतने प्रणाम करके जो कुछ भेट राजा जयसेनने भेजी थी वह राजकुमारको नजर कर दी। इस भेटमें भगलीदेशके सुन्दर घोड़े आदि अनेक वस्तुयें थीं। भेटकी ओर निगाह फेरते हुये राजकुमार पार्श्वने दूतसे अयोध्या नगरका पूर्व महत्व वर्णन कग्नेको कहा । दूत तो चतुर था ही, उसने भगवान् ऋषभदेवसे लगाकर उस समय तकका समस्त वृत्तांत अयोध्याका कह सुनाया। तीर्थंकरोंके अनुपम कल्याणकोंका जिक्र भी उसने किया। राजकुमारने दूतको पुरस्कृत करके विदा किया; परन्तु उसके चले जानेपर भी वह उसके शब्दोंको न भुला सके । अयोध्याके विव-रणको सुनकर उनके हृदयमें वैराग्यकी लहर उमड़ पड़ी। नाचीन दूतके बचन-उनके वैराग्यका कारण बन गये। राजकुमार पार्श्वनाथका चित्त संसारसे विरक्त होगया-उनको संसारकी सब वस्तुए, निःसार जंचने लगीं। उनमें उनको अब जरा
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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