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________________ भगवानका शुभ अवतार। [११७ - स्वामि सग अघविन भई, क्यों नहिं ऊरध जाहि ॥ न्हौन छटा तिग्छी भई, तिन यह उपमा धार । दिग वनिता-मुख सोहियै, करनफूल उनहार ॥' इस प्रकार न्हवन कर चुकनेपर इन्द्र और शचीने बड़ी विनयसे बालक भगवानकी पूजा की और फिर वह भगवानसे विनय करने लगा कि 'हे भगवन् ! आपकी कृपास्वरूप आत्महितके विना अनादिकालसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रबल कर्मोका नाशक विवेक स्वरूप नेत्र लोगोको प्राप्त नही होसक्ता। आपकी कृपा विना वे कर्मोके नाशके लिये समर्थ नही होसक्ते।' इसी तरह बहुत देरतक विनय कर चुकनेपर सब देवलोग बनारस लौट आये । इन देवोंको इस प्रकार सजधजके साथ आता हुवा देखकर राजा विश्वसेनको बड़ा आश्चर्य हुआ। परन्तु इन्द्रने राजाको सब भेद बतला दिया और कहा कि नियमानुसार देवगण भगवानके गर्भ, जन्म आदि पांच कल्याणकोंपर उत्सब मनाने आते हैं, उसी अनुरूप मैने भगवानका जन्मकल्याणक उत्सव मनाया है। यह कहकर आचार्य कहते हैं कि इन्द्रने इस प्रकार भगवानका नाम रक्खा। 'अनुपमसुखधामपार्श्ववृत्त्या सकलजगद्विषय प्रभावभूम्ना । सविनयमयमुच्यता समस्तैर्भुवनगुरुवसुधेश पार्श्वनाथः ॥५७॥' अर्थात्-ऐसा कहकर इन्द्रने, उस समय भगवान जिनेन्द्रके पार्श्व (पास) में अद्वितीय सुख और कांति दीख पड़ती थी और समस्त जगतपर उनका प्रभाव पड़ा हुआ था, इसलिये तीन लोकके स्वामी जिनेन्द्रका पवित्र नाम पार्श्वनाथ रख दिया। (पार्श्व०४० ३६२) १-विश्वसेननृपः सार्द्ध देव्या बधुजनैस्तरा । प्रीतिमायातिसाश्चर्यो दृष्ट्वातनाट्यमूजितं ॥ १०० ॥
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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