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________________ तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७७ क्योंकि पानी एक मिश्रितरूप है और संसारमे आत्मा भी अज्ञानसे वेष्टित संयुक्तावस्थामें है यद्यपि मूलमे वह अपने स्वभाव कर ही जीवित है अर्थात् अपने स्वभावसे वह अब भी च्युत नहीं हुआ है । और अमूर्तीक ही है । वही अपना सप्तार अपने आप बनाता है इस कारण सब वस्तुओका तो भी वही है । इसप्रकार प्रजापति परमेष्ठिन्के मन्तव्यको हम भावार्थरूपमें प्राय जैनधर्मके समान हो पाते है । वल्कि जिनसेनाचार्यजी कृत 'जिनसहस्रनाम' मे भग. वान ऋषभदेवका स्मरण 'सलिलात्मक" रूपसे किया हुआ मिलता है।' यह भी 'सलिल' के अर्थ 'आत्मा' की पुष्टि करता है, क्योकि ऋषभदेव परमात्मा रूपमें ग्रहण किये गये है और परमात्माः . एव आत्मामे मूलमे कछ अन्तर नहीं है । अस्तु प्रजापतिने पुद्गल (Intter ) और मुख्य शक्ति-आत्मा (Iolise pomon) में यहांपर कोई भेद भी न बताया, इसका कारण यही है कि वह पहले ही आत्माको 'पानी' मानकर इस । भेदको प्रकट कर चुके थे। 'व्यक्ति' उनके निकट 'पर्याय' ही थी। 'पानी' अर्थात आत्माकी पर्याय-पलटन उसमे गरमाई (तपस) के कारण होती थी। यह गरमाई जैनदृष्टिसे 'विभाव' कही जासक्ती ह जिससे 'काम'की उत्पत्ति होना ठीक ही है। काम ही साप्तारिक परिवर्तनमें मुख्य माना गया है, जो मनसे ही जायमान (मनसो रेत.) था। यह मन अन्तत 'सूर्य' बतलाया गया है। जो संसारमे प्रथमअमा, स्व-विज्ञान और प्रत्यक्ष संसारमें व्यक्तिरूप है। जैनधर्ममें पाय धारण करनेमे मुख्य कारण कामादि जनित इन्द्रियलिप्सा .१-जिनसहश्रनाम अ० ३ श्लोक ५। २-ए हिस्टी० पृ० १३ । -पूर्व पृष्ठ १४ । ४-पूर्व प्रमाण । ५-पूर्वप्रमाण । - - . ..
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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