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________________ __७४] भगवान पार्श्वनाथ । साथ २ उनका विरोधी मत भी कोई मौजूद था। अतएव वेदोंको शब्दार्थमें ग्रहण करके और फिर उनसे ही उपरान्त जैन, बौद्ध आदि धर्मोकी उत्पत्ति मानना कुछ ठीक नहीं जंचता है । जबकि जनधर्म हिन्दूधर्मके समान ही प्राचीनतम धर्म होनेका दावा करता है, निमका समर्थन हिन्दूओंके पुराण ग्रंथ भी करते हैं। 'तिसपर स्वयं ऋग्वेदमें जो 'प्रजापति परमेटिन्' के मन्तव्योंका विवेचन किया गया है, उनसे इम विषयकी पुष्टि होती प्रतीत होती है, यदि हम उन्हें शब्दार्थमें ग्रहण न करें। परमेष्टिनकी मान्यता घरूप (Dynamistic) और संगयात्मक (Sceptic) कही गई है। इसी तरह भगवान महावीरके धर्मको भी द्वैधरूप (Dynamistic) और स्याहादात्मक कहा है जो परमेष्टिनकी मान्यतासे मादृश्यता रखता है । तिसपर स्वयं 'परमेष्टिन् मन ही खास जैनियोंका है । जैनधर्मके पुज्य देव-अरहंत. सिद्ध, आचार्य. उपाव्याय, मावु-पंच ‘परमेष्टी' के नामसे विख्यात हैं । इतर धर्मोमें इम शनका व्यवहार इस तरहसे क्रिया हुआ प्राय. नहीं ही मिलन है । इस कारण संभव है कि जैनधर्मके सिद्धान्तको व्यक्त करनेके लिए अथवा उसी ढंगको बतानेके वास्ते 'प्रजापति परमेष्टी के मंत्रों मनावेग ऋग्वेदमें किया गया है । 'प्रजापति शडसे यदि न्यवं भगवान ऋपमदेवका अभिप्राय हो तोमी कुल आश्चर्य नहीं है. क्योंकि मयुगके प्रारम्भमें प्रनाकी सृष्टि करने और उसकी रक्षाके उपाय बताने की अपेक्षा वे 'प्रजापति नानसे मी उल्लिखित हुए है। 1- 010-भागवत ५। ८,५३, तथा विष्णुपुगन ५० १०८।:-T, हिल्टी लॉग ग्री-अद्विस्टिक इन्टियन फ्लिॉपफी १०१५। - पट । -जिनसहनान ७.२ ओ..।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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