SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस समयकी सुदशा। यह बात हमे जैनग्रन्थ 'आराधनाकथाकोष' में बताई गई है। सेठ लोग अपना व्यापारका सामान गाडियोंपर लादे चले जारहे थे । रास्ते में गहन वन पडता था, उसीमे होकर यह लोग गुजर रहे थे कि अचानक इनपर एक डाकुओका दल टूट पड़ा और देखते ही देखते उन्होने इनके माल असबाबको लूट लिया । यह वेचारे ज्यों त्यो अपनी जान बचाकर वहासे भागे । डाकुओके हाथ खूब धन आया, धन पाकर उन सबकी नियत बिगडी । सच है इस लक्ष्मीका ललच बडा बुरा है। भाई-भाई और पिता-पुत्र में इसीकी बदौलत शत्रुता बढ़ती देखी जाती है। इन डाकुओका भी यही हाल हुआ, सब परस्परमें यही चाहने लगे कि साराका सारा धन उसे ही मिले और किसीके पल्ले कुछ न पडे । इस बदनियतको अगाडी रखकर वे एक दूसरेके प्राण अपहरण करनेकी कोशिष करने लगे । रातको जब वे लोग खानेको बैठे तो एकने भोजनमे विष मिला दिया; जिसके खानेसे सब मर गए। यहां तक कि भ्रममे पड़कर वह भी मर गया जिसने कि स्वयं विष मिलाया था, किन्तु इतनेपर भी उनमें एक बच गया । यह था एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र ! दुराचारके वश पड़ा हुआ यह इन डाकुओके साथ रहता था, परन्तु इसके पहलेसे ही रातको भोजन न करनेकी प्रतिज्ञा थी, इसी कारण वह डाकुओकी घातसे बाल बाल बच गया। सचमुच यह चचल सम्पत्ति मनुष्योके प्राणोकी साक्षात् दुश्मन है और धर्म परम मित्र है । डाकूलोग धनके मोहमे मरे, पर धर्म प्रतिज्ञाको निभानेवाला सेठ पुत्र बच गया । धन और धर्मका ठीकस्वरूप यहां स्पष्ट है ! १. आराधनाकथाकोष भाग २ पृष्ठ ११२ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy