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________________ राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [१९ हृदयमे रखकर वह इन्द्रियोंका निग्रह करने लगा। यहांतक कि गिरे हुये सूखे पत्तों आदिको खाकर पेट भरने लगा और धूपसे. तपे हुये प्रामुक जलको धोकर प्यास बुझाने लगा। जिन हथिनियोंके पीछे वह मतवाला बना फिरता था, उनकी तरफ अब वह निहारता भी नहीं था। हरतरहके कष्ट चुपचाप सहन करलेता था-दुर्ध्यानको कभी पास फटकने नहीं देता था। इसप्रकार संयमी जीवन व्यतीत करता वह कृषतन होगया। पचमपरमेष्ठीका ध्यान वह निसिवासर करता रहा। एक रोज हत्भाग्यसे क्या हुआ कि वह वेगवती नदीमें पानी पीने गया था, वहांपर दलदलमें फस गया। बाहर निकलना बिल्कुल मुहाल होगया। इस तरह असमर्थता निहारकर हाथीने सन्यास ग्रहण करना उचित समझा। वह समाधि धारणकर वहां वैसाका वैसा ही स्थित खड़ा रहा। प्रबल पुण्यप्रकृतिके प्रभावसे निपट र्दुबुद्धियोंको भी सन्मार्गके दर्शन होजाते हैं और वह उसपर चलने में हर्ष मनाते है, इसमे आश्चर्य करनेकी कुछ बात नहीं! हाथी बिचारा सन्यास साधन किये हुये वहा खड़ा ही था, कि इतनेमें पूर्वमवके कमठका जीव, जो मरकर इसी वनमें कुर्कुट हुआ था, इधर आ निकला। हाथिको देखते ही उसे अपने पहले जन्मकी बातें याद आगईं। क्रोधसे वह तिलमिला गया। झटसे उसने मरुभूतिके जीव उस सयमी हाथीको डस लिया ! शुभभावोसे देह त्यागकर भगवान पार्श्वनाथके दूसरे भवका जीव यह हाथी सहस्रार नामक बारहवें स्वर्गमें बडी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव हुआ। और कमठका जीव-यह सर्प मरकर पापोके कारण पांचवे नर्कमें पहुंचा ! यहां अपनी २ करनीका फल प्रत्यक्ष है।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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