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________________ भगवान् महावीर ३४० एवंभूत-इस नय की दृष्टि से शब्द, अपने अर्थ का वाचक ( कहने वाला) उस समय होता है-जिस समय वह अर्थ-पदार्थ उस शब्द की व्युत्पत्ति में से क्रिया का जो भाव निकलता हो, उस क्रिया में प्रवर्ता हुआ हो। जैसे 'गो' शब्द की व्युत्पत्ति है-"गच्छंतीति गौः" अर्थात् जो गमन करता है-उसे गो कहते हैं, मगर वह 'गो' शब्द-इस नय के अभिप्राय से-प्रत्येक गऊ का वाचक नहीं हो सकता है। किन्तु केवल गमन क्रिया में प्रवृत-चलती हुई गाय का ही वाचक हो सकता है ! इस नय का कथन है कि शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार ही यदि उसका अर्थ होता है तो उस अर्थ को वह शब्द कह सकता है। ___ यह वात भली प्रकार से समझा कर कही जा चुकी है, कि यह सातो नय एक प्रकार के घष्टि विन्दु हैं। अपनी अपनी मर्यादा मे स्थित रह कर, अन्य दृष्टि विन्दुयो का खंडन न करने ही में नयों की साधुता है। मध्यस्थ पुरुप सब नयों को भिन्न भिन्न चष्टि से मान देकर तत्वक्षेत्र की विशाल सीमा का अवलोकन करते हैं। इसीलिये वे रागद्वेष की बाधा न होने से, आत्मा की निर्मल दशा को प्राप्त कर सकते हैं।
SR No.010171
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherMahavir Granth Prakashan Bhanpura
Publication Year
Total Pages435
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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