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________________ अनासक्ति ८४८ हे धीर पुरुष । आशा, तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर। तू स्वय ही इन काटो को मन मे रखकर दुखी हो रहा हैं। ८४६ जिस प्रकार अग्नि पुराने सूखे काष्ठ को शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी तरह सतत अप्रमत्त रहने वाला साधक कर्मों को कुछ ही क्षणो मे क्षीण करदेता है । ८५० भगवान ने सर्वत्र निष्कामता को श्रेष्ठ बतलाया है। ८५१ कामनाओ को दूर करना ही दुःखो को दूर करना है। ८५२ किसी भी वस्तु को ललचाही आंखो से न देखें। ८५३ केवल कर्णप्रिय तथा तथ्यहीन शब्दो मे अनुरक्ति नही रखनी चाहिए। ८५४ जो व्यक्ति ससार की तृष्णा से रहित है उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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