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________________ मध्यात्म और दर्शन (अप्रमाद) २६६ ५३४ चतुर वही है जो कभी प्रमाद न करे, ८३५ आत्म-साधना मे अप्रमत्त रहने वाले साधक न अपनी हिंसा करते हैं न दूसरो की वे सर्वथा अनारभ अहिसक रहते हैं। सदा अप्रमत्तभाव से साधना मे यत्न शील रहना चाहिए । ८३७ समय बड़ा भयकर और इधर प्रतिक्षण जीर्ण शीर्ण होता हमा, शरीर है अत अप्रमत्त होकर भारड़पक्षी की तरह विचरण करना चाहिए। ८३८ जागत साधक प्रमादी के बीच भी सदा अप्रमादी रहता है। ८३६ वीर ! एक मुहुर्त का भी प्रमाद मत कर, तेरी आयु वीत रही है और यौवन ढल रहा है। ८४० है गौतम ! क्षणमात्र का प्रमाद मतकर । ८४१ जीवन क्षणभगुर है अतः क्षणभर भी प्रमाद मत करो। ८४२ प्रमादी धन के द्वारा अपनी रक्षा नही कर सकता।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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