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________________ (१७३) के स्वरूप का अवबोध प्राप्त कर लेने के अनन्तर अपरिग्रह के स्वरूप का ज्ञान स्वत ही प्राप्त हो जाता है । परिग्रह आसक्ति का नाम है तो अनासक्ति भाव अपरिग्रह है। अभ्यन्तर और वाह्य परिग्रह का परित्याग ही अपरिग्रह कहलाता है। एक प्राचार्य ने अपरिग्रह के तीन रूप बतलाए है । वे इस प्रकार है १-इच्छा को सीमित करना। २-इच्छा परिमित होते हुए भी अन्याय और अनीति से धन, धान्य आदि पदार्थो का सग्रह न करना। । ३-न्याय नीति से उपार्जित सम्पत्ति को प्रवचन की प्रभावना के लिए लगाना । राजा प्रदेशी की तरह अरमणीक से रमणीक बनने के लिए अपनी आमदनी का चोथा-चौथा हिस्सा दान के लिए यथाशक्ति निकालना। ___ अपरिग्रह की महिमा महान है। यह शान्ति का अखण्ड स्रोत है। परिग्रह या तृष्णा नामक रोग से मुक्ति पाने के लिए अपरिग्रह से बढ कर कोई औषध नही है। अपरिग्रह के सेवन से ऐहिक कामनाओ और वासनाओ के समस्त भीषण कीटाणु मनुष्य का पिण्ड छोड देते हैं और उन से उन्मुक्त (रहित) मनुष्य सदा के लिए आनन्द और शान्ति को प्राप्त कर लेता है। अपरिग्रह-सन्तोष या अनासक्ति भाव ही पुरुष का सब से बडा खजाना है। इस को पाकर भिखारी भी शाहो का पूज्य बन जाता है । अपरिग्रह की भावना अमृत के समान है, जिस मनुष्य ने इस का पान कर लिया है, वह यदि गृहस्थ भी है तो भी वह स्वर्गीय सुखो को प्राप्त कर लेता है । ससार की समस्त शक्तिया उस के चरणो मे लोटपोट हो जाती है।
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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