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________________ (१३५) ईश्वर कर्मफलप्रदाता नही है ईश्वर को ससार का निर्माता मानने वाले लोग कहते है कि ईश्वर जहा ससार की रचना करता है वहा वह ससार मे शुभाशुभ कर्म करने वाले प्राणियो को उन के कर्मों के अनुसार शुभाशुभ फल भी देता है किन्तु जैनदर्शन का ऐसा विश्वास नही है । जैनदर्शन कहता है कि ससारी जीवो की सुख, दुख, सम्पत्ति, विपत्ति, ऊच और नीच जितनी भी विभिन्न अवस्थाए दृष्टिगोचर होती है उन सब का मूल कारण कर्म है । . जीवो की उक्त अवस्थाओ के साथ ईश्वर का कोई सम्बन्ध नही है । कर्मवाद के मर्मज्ञ विद्वान् सन्त देवचन्द्र कहते है My रे जीव ! साहस आदरो, मत थावो तुम दीन । सुख दुख सम्पद् आपदा, पूरब कर्म अधीन || अर्थ स्पष्ट है । विद्वान सन्त ने मनुष्य को सावधान करते हुए कहा है कि तू साहसी बन, दीन, हीन होने की तुझे क्या आवश्यकता है ? तेरा सुख, दुख, सम्पत्ति, विपत्ति सव पूर्वकृत कर्मो के अधीन है। पूर्व जो कुछ तूने वोया है, वही तेरे सामने आने वाला है । अत अपने को निराश मत कर । एक और विद्वान भी इसी सत्य को अपने ढंग से प्रकट करते हैस्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वय तत्फलमश्नुते । स्वय भ्रमति ससारे, स्वय तस्माद् विमुच्यते ॥ अर्थात् - आत्मा स्वय ही कर्म करने वाला है और स्वय ही उस का फल भोगने वाला है । आत्मा स्वय ही ससार मे भ्रमण करता है, कभी नरक, कभी स्वर्ग और कभी मनुष्यलोक मे
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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