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________________ (१०४) दृष्टिगोचर नही होता । अत शरीर के खण्डित भाग में आत्मप्रदेश मानने पडेगे और यह स्वीकार करना पडेगा कि खण्डित भाग मे जो कम्पन होता है वह आत्मप्रदेशो के कारण हीहोता है क्योकि गरीर के उस खण्डित भाग मे कोई दूसरा जीव तो है ही नही और बिना जीव के उस मे परिस्पन्दन का हाना सर्वथा असभव है । व्यवहार इस तथ्य का गवाह है। देखा जाता है कि कुछ देर के बाद जब आत्म-प्रदेश सकुचित हो जाते है तो उस कटे भागे मे कम्पन रुक जाता है । सारार्श यह है कि शरीर के दो भाग हो जाने पर भी आत्मा के दो भाग नही होते है । । जीव को यदि सर्वव्यापक मानलिया जाए तो अन्य अनेको प्रश्न उपस्थित हो जाते है जिन का कोई सन्तोषजनके समाधान नही मिलता है । देखिए, सर्वव्यापक आत्मा में क्रिया नही हो सकती और क्रिया के बिना वह पुण्य और पापे का कर्ता नही बन सकता है। पुण्य पाप का कर्ता बने बिना उस के बध और मोक्ष की व्यवस्था नही बन सकती । तथा आत्मा को सर्व-व्यापक मान लेने पर सुख दुख की व्यवस्था भी नही हो सकती । आत्मा को सर्व-व्यापकता में एक व्यक्ति का सुख दुख दूसरे व्यक्ति को भी होना चाहिए, क्योकि उसकी श्रात्मा दूसरे व्यक्ति मे भी अवस्थित है। जव यात्मा सर्वत्र है तव एक दूसरे के सुख दुख की अनुभूति एक दूसरे को अवश्य होगी। इस मे कोई वाधक नही बन सकता । पर ऐसा होता नहीं है । इपके अलावा मनुष्य मर गया, उसका • स्वर्गवास हो गया, इन वाक्यो का प्रयोग भी नही हो सकता है । क्योकि जब जीव सर्वव्यापक होने से सर्वत्र अवस्थित है,
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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