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________________ (१०२) किन्तु जैनदर्शन को ईश्वर की सर्वव्यापकता मान्य नही है। - जैनदर्शन जीव को शरीर-परिमाण मानता है। जैसे दीपक छोटे या बडे जिस स्थान मे रखा जाता है उसका प्रकाश उस के अनुसार या तो सकुचित हो जाता है या फैल जाता है, वैसे ही प्राप्त हुए छोटे या वडे शरीर के आकार के परिमाणानुसार आत्मप्रदेशो के परिमाण मे भी सकोच और विकास होता रहता है किन्तु उनके सकुचित होने पर न तो आत्मा मे कोई हानि होती है और उन का विस्तार होने पर आत्मा में न कोई विशेषता आती है। प्रत्येक दशा मे आत्मा यसख्यात प्रदेशी का असख्यात प्रदेशी ही रहता है। कहा जाता है कि यदि आत्मा शरीर-परिमाण है तो बालक के शरीर-परिमाण से युवा शरीर रूप परिमाण मे वह कैसे बदल जाता है ? यदि बालक के शरीर-परिमाण को छोडकर यह आत्मा युवक व्यक्ति के शरीर परिमाण को धारण करता • "जितने स्थान को एक पुद्गल परमाणु रोकता है, उतने देश को प्रदेश कहते है । लोकाकाश मे यदि क्रमवार एक-एक करके परमाणुओ को बराबर सटाकर रखा जाए तो असख्य परमाणु समा सकते है । अत लोकाकाग, तया उसमे व्याप्त धर्म और अधर्म द्रव्य असख्यातप्रदेशी कहे जाते है । इसी तरह शरीर-परिमाण जीव द्रव्य भो यदि शरीर से बाहर हो कर फैले तो लोकाकाश मे व्याप्त हो सकता है। अत. जैनदर्शन जीव द्रव्य को भी असख्यातप्रदेशी मानता है। आकाश, धर्म, अधर्म आदि द्रव्य जड है, जब कि जीव चेतनता को लिए हुए है। यही इनमे अन्तर है।
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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