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________________ शिक्षा और व्यवहार (विकीर्ण सुभाषित) २७६ ९८३ यदि मेरे निमित्त से वहत से जीवो की घात होने वाली है तो यह परलोक मे मेरे लिए जरा भी श्रेयस्कर नही है। १८४ वैरभाव रखने वाला व्यक्ति सदा वैर ही करता रहता है । वह एक के बाद एक क्रमश वैर को बढाने मे ही मग्न रहता है। ९८५ यदि जल स्पर्श अर्थात् जल स्नान से ही सिद्धि प्राप्त होती हो तो जल मे रहने वाले अनेकानेक प्राणी कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते । ९८६ देह को भले ही त्याग दे किन्तु अपने धर्म-शासन को न त्यागे । १८७ जो व्यक्ति धर्म तथा अधर्म से सर्वथा अनभिज्ञ है, केवल कल्पित तर्को के आधार पर ही अपने विचारो का प्रतिपादन करते हैं । वे वस्तुत अपने कर्म बन्वन को तोड नही सकते । जैसे कि पिंजरे मे रहा हुआ पक्षी पिंजरे को तोडने मे असमर्थ होता है। ९८८ मुनि का अपमान-~तिरस्कार करना वैसा ही कष्टप्रद है जैसा कि नखो से पर्वत को खोदना, दांतो से लोहे को चबाना और पैरो से अग्नि को रोदना। ६८९ ममत्त्व का बन्धन महाभय को उत्पन्न करने वाला है। ९६० धन-धान्यादि वस्तुओ मे आसक्त प्राणी ममत्त्वभाव से ही दुखी होता है। ९६१ उसका नग्न भाव व्यर्थ है जो उत्तमार्थ मे विपरीत बुद्धि रखता है, दुष्प्रवृत्ति को सत्प्रवृत्ति मानता है।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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