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________________ तृष्णा ८६४ संसार की तृष्णा महा-भयकर फल देने वाली विप-बेल है । ८६५ मनोज्ञ शब्द की तृप्णा के वशीभूत अज्ञानी पुरुष अपने स्वार्थ के लिए अनेक प्रकार के बस स्थावर जीवो की हिंसा करता है। उन्हे कई प्रकार से परितप्त और पीडित करता है । ८६६ शब्द मे अनुराग और ममत्व भाव होने के कारण मनुष्य परिग्रह के उत्पादन, रक्षण और प्रबन्ध की चिंता करता है। उसका व्यय और वियोग होता है, अत इन सब मे उसे सुख कहाँ है ? और तो क्या ? उसके उपभोग काल मे भी उसे तृप्ति नहीं मिलती। ८९७ शव्दादि विपयो मे जो अतृप्त होता है, उसके परिग्रहण मे आसक्त, उपासक्त होता है, उसे सतोष प्राप्त नहीं होता, वह असतोप के कारण दुखी और लोभग्रस्त होकर दूसरो की मूल्यवान् वस्तुएँ चुरा लेता है । ८९८ तृष्णा से अभिभूत-चौर्य-कर्म मे प्रवृत्त और शब्दादि विपयो तथा परिग्रहण मे अतृप्त पुरुप लोभ-दोष से माया और मृपा की वृद्धि करता है । तथापि वह दु ख से मुक्त नहीं होता। ८६६ मृपावाद के पहले और पीछे तथा बोलते समय वह दुखी होता है, चोरी मे प्रवृत्त और शब्दादि मे अतृप्त हुई आत्मा दु ख को प्राप्त होती है। तथा उसका कोई भी सरक्षक नहीं होता।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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