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________________ शिक्षा और व्यवहार ( अप्रमाद) ८८३ मारण्ड पक्षी की भाँति साधक अप्रमत्त होकर विचरण करे । ८८४ अप्रमत्त होकर विचरण करने वाला मुनि शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है । ८८५ आत्मरक्षक और अप्रमत्त होकर विचरण करो । ८८६ मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा - ये पाँच प्रकार के प्रमाद कहे हैं, इनसे विरक्त होना ही अप्रमाद है । ८८७ सम्यग्दृष्टि आत्मा चरित्र पथ मे कभी भी प्रमाद न करे । २५३ ८८८ प्रमत्त आत्मा को सभी ओर भय रहता है । जबकि अप्रमत्त को किसी भी ओर भय नही रहता है । ८६ चतुर नर वही है जो कभी प्रमाद का सेवन न करे । ८६० धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे । ८६१ जीवन का धागा नाजुक है, टूट जाने पर वह पुन जुड नहीं सकता । अत जरा भी प्रमाद मत करो । ८६२ पूर्व भव- सचित कर्मों की रज दूर करने के लिए हे गौतम । मात्र का भी प्रमाद मत कर । तू समय ८६३ जो साधक एक बार अपने कर्तव्य पथ पर उठ खडा हुआ है, उसे फिर प्रमाद का सेवन नही करना चाहिए ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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