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________________ ज्ञानी - अज्ञानी ८६५ वाल- अज्ञानी जीव राग-द्वेष के अधीन हो कर बहुत पाप कर्म का उपार्जन करते हैं । ८६६ अज्ञानी जीव की प्रवृत्तियाँ तो अनेक होती हैं पर वे सभी कर्मोत्पादक होने से पूर्ववद्ध कर्मों का क्षय नही कर पाती । जबकि धीर पुरुषो की प्रवृत्तियाँ अकर्मोत्पादक होने से अपने पूर्ववद्ध कर्मों को क्षीण कर सकती हैं । ८६७ पृथ्वी अप आदि जीवो के साथ दुर्व्यवहार करता हुआ बाल जीव पापकर्मों मे आसक्त होता है । ८६८ [ अत ] पण्डित पुरुप बहुत प्रकार के जाति-पथो का विचार करके अपनी आत्मा के द्वारा सत्य का अन्वेषण करें, और सभी जीवो के प्रति मैत्री का आचरण करें । ८६६ वाल जीव की ऐसी मान्यता है कि धन, पशु तथा स्वजन सम्बन्धी मेरा सरक्षण करेंगे । वे मेरे हैं तथा मैं उनका हूं किंतु इस प्रकार उसकी रक्षा नही होती । ८७० जिस प्रकार पुरानी व सूखी लकडियो को आग शीघ्र ही जला देती है, उसी प्रकार आत्म-निष्ठ तथा मोहरहित साधक कर्म रूपी काष्ठ को जला डालता है । PX
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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