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________________ शिक्षा और व्यवहार (बिषय भोग-मुक्ति) २३७ ८३२ आत्म-विद् साधको ने काम-भोगो को रोगयुक्त देखे हैं । चार प्रकार के काम कहे है- गार, करुण, वीभत्स और रौद्र । देवो के काम-शब्दादि अत्यन्त मनोज्ञ रति-रस के उत्पादक होने से शृगार कहलाते है। मनुष्यो का शरीर शुक्र-शोणित से बना हुआ होने से उन के काम क्षणिक हैं, अत करुण कहे गये है। तिर्यंचो के काम घणोत्पादक हैं, अत वे वीभत्स माने गये हैं और नारको के काम क्रोध के कारण होने से रौद्र गिने गये हैं। जो व्यक्ति भोग समर्थ होते हुए भी भोगो का परित्याग करता है, वह कर्मों की महान् निर्जरा करता है तथा मोक्षरूपी महाफल को प्राप्त करता है। मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग, देव सम्वन्धी काम-भोगो की तुलना मे वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की समुद्र से तुलना करता है। ८३६ जैसे किंपाक फल रूप, रग और रस की दृष्टि से प्रारम्भ मे खाते समय तो अत्यन्त मधुर और मनोरम लगते हैं किन्तु बाद मे जीवन के नाशक हैं, वैसे ही काम-भोग भी प्रारम्भ मे बडे मीठे और मनोहर प्रतीत होते हैं, किन्तु विपाककाल मे अत्यन्त दु ख प्रद सिद्ध होते है । ८३७ जो काम-भोगो मे नही फंसता, पापकर्मों से पृथक रहता और अपनी आत्मा को पतन के गर्त से बचाता है, वही साधक वीर है, आत्मरक्षक है, विद्वान् तथा कुशल है । ५३८ ससारी आत्मा दु खो से घिरी रहती है, तथापि वे काम-भोगो मे आसक्त बनी रहती है। ८३६ मोगी ससार मे परिभ्रमण करता है, अभोगी मसार से मुक्त होता है।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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