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________________ जीवन और कला ( साधक-जीवन ) ७२२ आत्मार्थी साधक अणुमात्र भी माया - मृषा का सेवन न करे । २०७ ७२३ साधक कभी भी यश-प्रतिष्ठा, प्रशसा और दैहिक सुखो के पीछे न पडे । ७२४ जब साधक सिर मुण्डवाकर अनगार धर्म को स्वीकार करता है, तब वह उत्कृष्ट सयमरूपी धर्म का आचरण कर सकता है । ७२५ जिस प्रकार नागराज अपनी केंचुली को छोड देता है, उसी प्रकार आत्मस्थ साधक अपनी कर्म रज को झाड देता है । ७२६ आत्मार्थी साधक को जल - कमल की तरह निर्लेप और आकाश की तरह निरवलम्ब होना चाहिये । ७२७ निर्मल चित्तवाला साधक लोक मे पुन जन्म नही लेता । ७२८ चित्त की निर्मलता से ही ध्यान की सही अवस्था प्राप्त होती है । जो बिना किसी द्वन्द्व - विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म मे स्थिर है, वह निर्वाण - मोक्ष को प्राप्त करता है । ७२६ जो अल्पाहारी है,इन्द्रियविजेता है, समस्त जीवो के प्रति रक्षा की भावना रखता है, उस साधक के दर्शन हेतु देव भी लालायित रहते हैं । ७३० पण्डित साधक | जीवन के जो क्षण बीत गये सो बीत गये । अवशेप जीवन को ही लक्ष्य मे रखते हुए प्राप्त अवसर का तू सदुपयोग कर ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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