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________________ कषाय ५९३ अनिगृहीत क्रोध और मान तथा वढते हुए माया और लोभ-ये चारो ही कुत्सित कपाय पुनर्जन्म-रूपी वृक्ष की जडो का सिंचन करते है । ५६४ क्रोध से जीव नीचे गिरता है, मान से जीव नीच गति पाता है, माया से जीव की सद्गति का नाश होता है और लोभ से जीव के लिए इस लोक और परलोक मे भय उत्पन्न होता है। ५६५ जिसके मोह नहीं है, उसने दु ख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नही है उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिस के पास लोभ करने जैसा कुछ भी पदार्थ सग्रह नही है उसने लोम का नाश कर दिया। कपाय-क्रोध, मान, माया और लोभ को अग्नि कहा है, उस को बुझाने के लिए श्रुत, शील और तप यह जल है। ५९७ वीर | क्रोध, मान, माया आदि विकारो का विनाश कर डालो, जिस मे भी लोभ का फल अति दारुण है। अत उनके परिणामो पर विचार करो। ५४८ जो मनुष्य अपना हित चाहता है, वह पाप वढानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ इन आत्मघातक दोपो को सदा के लिए त्याग दे । १६७
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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