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________________ श्रावक-धर्म जो पुरुप अपने घर में निवास करता हुआ भी श्रावक धर्म का पालन करता है, तथा प्राणातिपात आदि हिंसा से निवृत्त होता हुआ सर्व प्राणियो के प्रति समभाव रखता है वह देवलोक को प्राप्त होता है । ५४० सद्गृहस्थ सदा धर्मानुकूल ही अपनी आजीविका करते हैं । ५४१ श्रमणोपासक की चार कोटियाँ हैदर्पण के समान-स्वच्छ हृदयवाला । पताका के समान-अस्थिर हृदयवाला । स्थाणु के समान--मिथ्याग्रही । तीक्ष्ण कटक के समान-कटुभाषी। ५४२ हे आयुष्मन् | यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ रूप है, और यही परमार्थ है । अन्य सभी निस्सार है। ५४३ जिसका हृदयस्फटिक रत्न के समान निर्मल, दानादि लोक सेवा के लिए उदार चित्तवाला है और जिसके घर का द्वार सदा खुला रहता है। राजभवन से लेकर साधारण घरो तक वह नि शक होकर प्रवेश कर सकता है। ऐसा प्रतीतिमय (विश्राम योग्य) श्रावक का जीवन होता है। ५४४ श्रद्धाशील अगारी-गृहस्थ सामायिक के अगो का काया से सम्यक्प से पालन करे । दोनो पक्षो मे किये जाने वाले पौषध को एक दिन रात के लिए भी न छोडे । १५३
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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