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________________ जीवन और कला (गुरु-शिष्य) १४१ ४६८ "गुरु कोमल अथवा कठोर शब्दो मे जो शिक्षा देते हैं, उसमे मेरा हित समाहित है, मुझे ही लाभ है," ऐसा विचार कर विनीत शिष्य अत्यन्त सावधानीपूर्वक उन की शिक्षा को ग्रहण करे । ४६६ जो गुरु की आशातना नहीं करता, वह पूज्य है। जो साधक गुरुजनो की अवहेलना करता है, वह कभी बन्धन से मुक्त नही हो सकता। ५०१ विनीत शिष्य किसी भी व्यक्ति का तिरस्कार न करे, और न आत्मप्रशसा ही करे । शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर के भी अभिमान न करे, यहाँ तक कि जाति, तप, अथवा बुद्धि का भी अहकार न करे। जुते हुए अयोग्य बैल जैसे वाहन को भग्न कर देते हैं, वैसे ही दुर्वल धृतिवाले शिष्यो को धर्म-यान मे जोत दिया जाता है तो वे उसे तहसनहस कर देते हैं। जैसे दुष्ट घोडे को चलाते हुए उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही दुर्बुद्धि-अविनीत शिष्य को शिक्षा देता हुआ गुरु खिन्नता का अनुभव करता है। जैसे उत्तम जाति के घोडे को हांकते हुए उस का सवार आनन्द का अनुभव करता है, उसी प्रकार विनीत बुद्धिमान शिष्यो को शिक्षा देता हुआ गुरु प्रसन्न होता है। जैसे दुष्ट घोडा चाबुक की बार-बार अपेक्षा रखता है, वैसे विनीत शिष्य गुरु के वचन की बार-बार अपेक्षा न रखे। ५०६ जैसे विनीत घोडा चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इगित और आकार को देखकर अशुभ-प्रवृत्ति को छोड दे।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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