SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु-शिष्य ४६२ जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण मधु, घृत आदि विविध पदार्थों की आहुति तथा मन्त्रपदो से अभिपिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, ठीक उसी प्रकार शिष्य अनन्त ज्ञान-सम्पन्न होने पर भी गुरु की विनयपूर्वक सेवा करे । ४६३ आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर भी शिष्य किसी भी अवस्था मे मौन-चुपचाप न रहे । ४६४ बुद्धिमान शिष्य गुरु के द्वारा एक बार या बार-बार बुलाने पर कभी भी बैठा न रहे, किंतु आसन को छोड कर यत्नपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करे। ४९५ विनीत शिष्य आसन पर अथवा शय्या पर बैठा हुआ, गुरु से । प्रश्न न पूछे, किंतु उन के समीप जा कर उत्कटिकासन करता हुआ हाथ जोड कर सूत्रादि अर्थ पूछे । विनीत शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की दृष्टि के अनुसार चले, उन की नि स्सगता का अनुगमन करे, उन्हे हर बात मे आगे रखे, उनमे श्रद्धा रखे और उन के समीप रहे । ४६७ जो शिष्य लज्जाशील और इन्द्रिय-विजेता होता है, वह सुविनीत बनता है। १३६
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy