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________________ जीवन और कला (श्रमण-धर्म) १३५ ४८१ कष्ट तथा आपत्ति के आने पर ज्ञान-सम्पन्न पुरुष खेदरहित मन से इस प्रकार विचार करे कि कष्टो से मैं ही पीडित नही हूँ, किन्तु ससार मे दूसरे भी दुखित हैं । और जो कष्ट आये है, उन्हे शातिपूर्वक सहन करे। ४८२ जिस प्रकार कोई गोपाल गौओ के चराने मात्र से उनका स्वामी नही वन सकता, अथवा कोई (कोपाध्यक्ष) धन की रक्षा करने मात्र से ही उस का स्वामी नही हो सकता, ठीक इसी तरह हे शिष्य | तू भी केवल साधु-वेश की रक्षामात्र से ही श्रामण्य का स्वामी नही बन सकेगा। ४८३ सत पूजा, प्रतिष्ठा तथा कीर्ति की अभिलाषा न करे । ४८४ सत पुरुष किसी को प्रिय अथवा अप्रिय न बनाए । ४८५ श्रमण कपाय-भाव से रहित बने । ४८६ आत्मार्थी साधक को परिमित और शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिए । ૪૭ जो शिल्प-जीवी नही है, जिस के घर नही है, जिसके मित्र नही है, जो जितेन्द्रिय और सर्व प्रकार के परिग्रह से मुक्त है, जिस का कषाय मन्द है, जो अल्प और निस्सार भोजन करता है तथा गृह का त्याग कर अकेला राग-द्वेष रहित होकर विचरण करता है, वह भिक्षु है । ४८८ दस प्रकार का श्रमण धर्म कहा गया है-क्षान्ति-क्षमा, मुक्ति-- निर्लोभता, आर्जव-सरलता, मार्जव-नम्रता, लाघव-अकिंचनता, सत्य, सयम, तप, त्याग, और ब्रह्मचर्य ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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