SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन और कला (श्रमण) १२६ ४५६ जब तक नये-नये गुणो की उपलब्धि हो, तब तक जीवन को पोषण दे और जब यह शरीर स्वय साधना मे निरुपयोगी प्रतीत हो, तब सयमी-साधक मल के समान इस का त्याग कर दे । ४५७ मात-पिता ने कहा-हे पुत्र | श्रामण्य का आचरण अत्यन्त कठिन है, क्योकि भिक्षु को हजारो गुण धारण करने होते है । ४५८ जो जाति का मद नही करता, रूप का मद नही करता, लाभ का मद नही करता, श्रुत-ज्ञान का मद नहीं करता, इस प्रकार सव मदो को वर्जता हुमा धर्म-ध्यान मे रत रहता है-वह सच्चा भिक्षु है । ४५६ सयमी साधक अज्ञात पिण्ड से अपने जीवन का निर्वाह करे । ४६० साधु शब्द और रूप मे आसक्त न बने । ४६१ मुनि सर्व-कामनाओ से अपने चित्त को हटाता हुआ रहे। ४६२ हनन किया जाता हुआ मुनि, छिली जाती हुई लकडी की तरह रागद्वेष रहित होता है। दह शान्तभाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। ४६३ कर्म क्षय करनेवाला मुनि उसी प्रकार ससार-प्रपच मे नही पडता, जिस प्रकार धुरा टूटने पर गाडी आगे नही बढती । ४६४ श्रमणत्त्व का सार है-उपशम ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy