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________________ जीवन और कला (श्रमण) १२७ ४४७ जो गृहस्थो से अति-स्नेह सूत्र नही जोडता, वह भिक्षु है । ४४८ जो धर्म-ध्यान मे सतत रत रहता है, वह भिक्षु है । ४४६ जो जन्म-मरण को महाभयकारी और अनन्त दुखो का कारण जान कर सयम और तप मे रत रहता है, वह भिक्षु कहलाता है । ४५० जो तप द्वारा पूर्वापार्जित पापकर्मों को नष्ट कर डालता है, वह भिक्षु कहलाता है। ४५१ जो हाथ, पॉव, वाणी और इन्द्रियो का भलीभांति सयम रखता है, जो अध्यात्म मे रत रहता है, जो अपने-आप को सुन्दर रीति से समाहित रखता है, जो सूत्र और अर्थ को यर्थाथ रूप से जानता है, वह भिक्षु है । ४५२ जो सुख और दुख को समभावपूर्वक सहन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। ४५३ ऋषि-मुनि सदा प्रसन्न-चित्त रहते हैं, कभी किसी पर कुपित नही होते। ४५४ जो शान्त है तथा अपने कर्तव्य-पथ को अच्छी तरह से जानता है वही श्रेष्ठ भिक्षु है। ४५५ जो किसी वस्तु मे मूर्छाभाव न रखे, वही साधु है ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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